Saturday, 25 November 2017

शंभूराजे प्राथमिक विद्यालय , प्रथम सत्र निकाल

दिनांक 25-11-2017
वार:- शनिवार

*शंभूराजे प्राथमिक विद्यालय*
*प्रथम सत्र निकाल*

सकाळी 11 वाजल्यापासून सर्व विद्यार्थ्यांमध्ये एक उत्साह कोण असेल प्रथम ,दुसरा,तिसरा ....

एक आणि एक विद्यार्थ्यांचे आई वडील दोघेही हजर फक्त आपल्या पाल्याची प्रगती पाहायला नव्हे तर त्यांना प्रेरणा द्यायला.....

चला मग पाहू या काय होते या निकालात रहस्य दडलेले.....

सर्वात महत्वाचे हे सर्व घडले उत्कृष्ट कारण प्रेरणा मा.वि.मु.अ. वैशाली मोरे यांची आणि साथ सर्व वर्गशिक्षकांची..

क्रमांक आलेल्या सर्व विद्यार्थ्यांना बक्षीस वाटप करण्यात आले तेही आपल्या सर्वांच्या प्रेरणादायी व्यक्ती तर्फे  मा.वि.मु.अ.श्रीमती मोरे वैशाली ह्यांच्या हस्ते...

सर्व प्रथम आपण पाहू या, *इयत्ता चौथीचा निकाल*, वर्गशिक्षिका श्रीमती आहेर मॅडम

प्रथम क्रमांक *अमित भारत भावे*
दुसरा क्रमांक *ओंकार रमेश शहाणे*
तिसरा क्रमांक *आर्यन नितीन बेदरकर*

चला पाहू या, *इयत्ता तिसरीचा*निकाल, वर्गशिक्षिका श्रीमती साखरे मॅडम

प्रथम क्रमांक *अभिजित ढाकरगे*
दुसरा क्रमांक *कार्तिक लिंगायत*
तिसरा क्रमांक
*अमृता पांढरपोटे*
तिसरा क्रमांक
*अभिजित भावे*

आता आपण पाहू या, *इयत्ता दुसरीचा* निकाल, वर्गशिक्षिका श्रीमती वानखेडे मॅडम

प्रथम क्रमांक *हर्षद फाटे*
दुसरा क्रमांक *कल्याणकर सोनाक्षी*

आता पाहू या, *इयत्ता पहिलीचा* निकाल, वर्गशिक्षिका श्रीमती पुराणिक मॅडम

प्रथम क्रमांक *संजना वाघमारे*
दुसरा क्रमांक *कौशल ढाकरगे*
तिसरा क्रमांक *अंशुमन बेदरकर*

चला चिमुकले बाकीच राहिले आता त्यांच्याकडे पाहू या, *बालवाडीचा निकाल*, वर्गशिक्षिका श्रीमती देशमुख मॅडम

प्रथम क्रमांक *वैष्णवी सूर्यवंशी*
दुसरा क्रमांक *ओम हिवाळे*

आता विचार पडला असेल आपण ह्यांचा का बरं , बक्षीस देऊन स्वागत केले असेल तर फक्त त्यांच्यात स्पर्धा निर्माण होण्यासाठी , कारण सर्व मुले ही देवघरची फुलेच आहेत बर.

वस्तुतः सर्वच विद्यार्थी हुशार - गुणवंत आहेत , तरी आपण व्हिडिओ पहिला आपले धन्यवाद,
आपण ह्या चॅनेल ला suscribe करावे.ही विनंती...

व्हिडिओ पाहण्यासाठी

https://youtu.be/-fcUW-IJ6M0

व्हिडिओ डाउनलोड करण्यासाठी येथे क्लिक करा.
https://drive.google.com/file/d/1b_wUR321PrXtHOVyq3oOAJO4S1ICvek5/view?usp=drivesdk

🙏 *शब्दांकन/संकलन*🙏
      ✍ *श्रीकांत सर*
*शंभूराजे विद्यालय छत्रपती  नगर, सातारा परिसर,*
           *ता.जि. औरंगाबाद*
© *शिवविचार*
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Friday, 24 November 2017

भारतीय संविधान का इतिहास

भारतीय संविधान का इतिहास


किसी भी देश का संविधान उसकी राजनीतिक व्यवस्था का वह बुनियादी सांचा-ढांचा निर्धारित करता है, जिसके अंतर्गत उसकी जनता शासित होती है। यह राज्य की विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका जैसे प्रमुख अंगों की स्थापना करता है, उसकी शक्तियों की व्याख्या करता है, उनके दायित्यों का सीमांकन करता है और उनके पारस्परिक तथा जनता के साथ संबंधों का विनियमन करता है। इस प्रकार किसी देश के संविधान को उसकी ऐसी 'आधार' विधि (कानून) कहा जा सकता है, जो उसकी राज्यव्यवस्था के मूल सिद्धातों को निर्धारित करती है। वस्तुतः प्रत्येक संविधान उसके संस्थापकों एवं निर्माताओं के आदर्शों, सपनों तथा मूल्यों का दर्पण होता है। वह जनता की विशिष्ट सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक प्रकृति, आस्था एवं आकांक्षाओं पर आधारित होता है।

भारत में नये गणराज्य के संविधान का शुभारंभ 26 जनवरी, 1950 को हुआ और भारत अपने लंबे इतिहास में प्रथम बार एक आधुनिक संस्थागत ढांचे के साथ पूर्ण संसदीय लोकतंत्र बना। 26 नवम्बर, 1949 को भारतीय संविधान सभा द्वारा निर्मित ‘भारत का संविधान’ के पूर्व ब्रिटिश संसद द्वारा कई ऐसे अधिनियम/चार्टर पारित किये गये थे, जिन्हें भारतीय संविधान का आधार कहा जा सकता है।

रेग्युलेटिंग एक्ट, 1773संपादित करें

बंगाल का शासन गवर्नर जनरल तथा चार सदस्यीय परिषद में निहित किया गया। इस परिषद में निर्णय बहुमत द्वारा लिए जाने की भी व्यवस्था की गयी। इस अधिनियम द्वारा प्रशासक मंडल में वारेन हेस्टिंग्स को गवर्नर जनरल के रूप में तथा क्लैवरिंग, मॉनसन, बरवैल तथा पिफलिप प्रफांसिस को परिषद के सदस्य के रूप में नियुक्त किया गया। इन सभी का कार्यकाल पांच वर्ष का था तथा निदेशक बोर्ड की सिफारिश पर केवल ब्रिटिश सम्राट द्वारा ही इन्हें हटाया जा सकता था।

    (१) मद्रास तथा बम्बई प्रेसीडेंसियों को बंगाल प्रेसीडेन्सी के अधीन कर दिया गया तथा बंगाल के गवर्नर जनरल को तीनों प्रेसीडेन्सियों का गवर्नर जनरल बना दिया गया। इस प्रकार वारेन हेस्टिंग्स को बंगाल का प्रथम गवर्नर जनरल कहा जाता है और वे लोग सत्ता का उपयोग संयुक्त रूप से करते थे

    (२) सपरिषद गवर्नर जनरल को भारतीय प्रशासन के लिए कानून बनाने का अधिकार प्रदान किया गया, किन्तु इन कानूनों को लागू करने से पूर्व निदेशक बोर्ड की अनुमति प्राप्त करना अनिवार्य था।

    (३) इस अधिनियम द्वारा बंगाल (कलकत्ता) में एक उच्चतम न्यायालय की स्थापना की गयी। इसमें एक मुख्य न्यायाधीश तथा तीन अन्य न्यायाधीश थे। सर एलिजा इम्पे को उच्चतम न्यायालय (सुप्रीम कोर्ट) का प्रथम मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया गया। इस न्यायालय को दीवानी, फौजदारी, जल सेना तथा धाख्रमक मामलों में व्यापक अधिकार दिया गया। न्यायालय को यह भी अधिकार था कि वह कम्पनी तथा सम्राट की सेवा में लगे व्यक्तियों के विरुद्ध मामले की सुनवायी कर सकता था। इस न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध इंग्लैंड स्थित प्रिवी कौंसिल में अपील की जा सकती थी।

    (४) संचालक मंडल का कार्यकाल चार वर्ष कर दिया गया तथा अब 500 पौंड के स्थान पर 1000 पौंड के अंशधारियों को संचालक चुनने का अधिकार दिया गया।

इस प्रकार 1773 के एक्ट के द्वारा भारत में कंपनी के कार्यों में ब्रिटिश संसद का हस्तक्षेप व नियंत्रण प्रारंभ हुआ तथा कम्पनी के शासन के लिए पहली बार एक लिखित संविधान प्रस्तुत किया गया।
1781 का संशोधित अधिनियमसंपादित करें

इस अधिनियम के द्वारा कलकत्ता की सरकार को बंगाल, बिहार और उड़ीसा के लिए भी विधि बनाने का अधिकार प्रदान किया गया।

    (१) इस अधिनियम द्वारा सर्वोच्च न्यायालय पर यह रोक लगा दी गयी कि वह कम्पनी के कर्मचारियों के विरुद्ध कार्यवाही नहीं कर सकता, जो उन्होंने एक सरकारी अधिकारी की हैसियत से किया हो।

    (२) कानून बनाने तथा उसका क्रियान्वयन करते समय भारतीयों के सामाजिक तथा धाख्रमक रीति-रिवाजों का सम्मान करने का भी निर्देश दिया गया।

    (3) इस अधिनियम को एक्ट आॅफ सेटलमेंट के नाम से भी जाना जाता है।

पिट्स इंडिया अधिनियम 1784संपादित करें

इस अधिनियम को कम्पनी पर अधिकाधिक नियंत्रण स्थापित करने तथा भारत में कम्पनी की गिरती साख को बचाने के उद्देश्य से पारित किया गया।

    (१) भारत में गवर्नर जनरल की परिषद की संख्या 4 से कम करके 3 कर दी गयी। इस परिषद को युद्ध, संधि, राजस्व, सैन्य शक्ति, देशी रियासतों आदि के अधीक्षण की शक्ति प्रदान की गयी।

    (२) कम्पनी के भारतीय अधिकृत प्रदेशों को पहली बार ‘ब्रिटिश अधिकृत प्रदेश’ कहा गया।

    (३) गवर्नर जनरल को देशी राजाओं से युद्ध तथा संधि से पूर्व कम्पनी के संचालकों से स्वीकृति लेना आवश्यक कर दिया गया।

    (४) इंग्लैंड में 6 आयुक्तों (कमिश्नरों) के एक ‘नियंत्रक बोर्ड’ की स्थापना की गयी, जिसे भारत में अंग्रेजी अधिकृत क्षेत्र पर पूरा अधिकार दिया गया। इसे ‘बोर्ड ऑफ कन्ट्रोल’ के नाम से जाना गया। इसके सदस्यों की नियुक्ति सम्राट द्वारा की जाती थी। इसके 6 सदस्यों में एक ब्रिटेन का अर्धमंत्री, दूसरा विदेश सचिव तथा चार अन्य सम्राट द्वारा प्रिवी कौंसिल के सदस्यों द्वारा चुने जाते थे।

    (५) इस ‘बोर्ड ऑफ कंट्रोल’ (नियंत्रक मंडल) को कम्पनी के भारत सरकार के नाम आदेशों एवं निर्देशों को स्वीकृत अथवा अस्वीकृत करने का अधिकार प्रदान किया गया।

    (६) प्रांतीय परिषद के सदस्यों की संख्या भी 4 से घटाकर 3 कर दी गयी। प्रांतीय शासन को केन्द्रीय आदेशों का अनुपालन आवश्यक कर दिया गया अर्थात् बम्बई तथा मद्रास के गवर्नर पूर्णरूपेण गवर्नर जनरल के अधीन कर दिये गये।

    (७) कम्पनी के कर्मचारियों को उपहार लेने पर पूर्णतः प्रतिबंध लगा दिया गया।

    (८) भारत में नियुक्त अंग्रेज अधिकारियों के मामलों में सुनवायी के लिए इंग्लैंड में एक कोर्ट की स्थापना की गयी।

1786 का अधिनियमसंपादित करें

इस अधिनियम के द्वारा गवर्नर जनरल को विशेष परिस्थितियों में अपनी परिषद के निर्णयों को रद्द करने तथा अपने निर्णय लागू करने का अधिकार दिया गया। गवर्नर जनरल को मुख्य सेनापति की शक्तियां भी मिल गयीं।
1793 का राजपत्रसंपादित करें

कम्पनी के कार्यों एवं संगठन में सुधार के लिए यह चार्टर पारित किया गया। इस चार्टर की प्रमुख विशेषता यह थी कि इसमें पूर्व के अधिनियमों के सभी महत्वपूर्ण प्रावधानों को शामिल किया गया था। इस अधिनियम की प्रमुख विशेषताएं निम्न थींः

    (१) कम्पनी के व्यापारिक अधिकारों को अगले 20 वर्षों के लिए बढ़ा दिया गया।

    (२) विगत शासकों के व्यक्तिगत नियमों के स्थान पर ब्रिटिश भारत में लिखित विधि-विधानों द्वारा प्रशासन की आधारशिला रखी गयी। इन लिखित विधियों एवं नियमों की व्याख्या न्यायालय द्वारा किया जाना निर्धारित की गयी।

    (३) गवर्नर जनरल एवं गवर्नरों की परिषदों की सदस्यता की योग्यता के लिए सदस्य को कम-से-कम 12 वर्षों तक भारत में रहने का अनुभव को आवश्यक कर दिया गया।

    (४) नियंत्रक मंडल के सदस्यों का वेतन अब भारतीय कोष से दिया जाना तय हुआ।

1813 का राजपत्रसंपादित करें

कम्पनी के एकाधिकार को समाप्त करने, ईसाई मिशनरियों द्वारा भारत में धार्मिक सुविधाओं की मांग, लॉर्ड वेलेजली की भारत में आक्रामक नीति तथा कम्पनी की सोचनीय आर्थिक स्थिति के कारण 1813 का चार्टर अधिनियम ब्रिटिश संसद द्वारा पारित किया गया। इसे प्रमुख प्रावधान निम्न थेः

    (१) कम्पनी का भारतीय व्यापार का एकाधिकार समाप्त कर दिया गया, यद्यपि उसका चीन से व्यापार तथा चाय के व्यापार पर एकाधिकार बना रहा।

    (२) ईसाई मिशनरियों को भारत में धर्म प्रचार की अनुमति दी गयी।

    (३) भारतीयों की शिक्षा के लिए सरकार को प्रतिवर्ष 1 लाख रुपये खर्च करने का निर्देश दिया गया।

    (४) कम्पनी को अगले 20 वर्षों के लिए भारतीय प्रदेशों तथा राजस्व पर नियंत्रण का अधिकार दे दिया गया।

    (५) नियंत्रण बोर्ड की शक्ति को परिभाषित किया गया तथा उसका विस्तार भी कर दिया गया।

1833 का राजपत्रसंपादित करें

1813 के अधिनियम के बाद भारत में कम्पनी के साम्राज्य में काफी वृद्धि हुई तथा महाराष्ट्र, मध्य भारत, पंजाब, सिन्ध, ग्वालियर, इंदौर आदि पर अंग्रेजों का प्रभुत्व स्थापित हो गया। इसी प्रभुत्व को स्थायित्व प्रदान करने के लिए 1833 का चार्टर अधिनियम पारित किया गया। इसके निम्न मुख्य प्रावधान थे :

    (१) कम्पनी के चाय एवं चीन के साथ व्यापार के एकाधिकार को समाप्त कर उसे पूर्णतः प्रशासनिक और राजनीतिक संस्था बना दिया गया।

    (२) बंगाल के गवर्नर जनरल को सम्पूर्ण भारत का गवर्नर जरनल घोषित किया गया। सम्पूर्ण भारत का प्रथम गवर्नर जनरल लॉर्ड बैंटिक बना।

    (३) भारत के प्रदेशों पर कम्पनी के सैनिक तथा असैनिक शासन के निरीक्षण और नियंत्रण का अधिकार भारत के गवर्नर जनरल को दिया गया। भारत के गवर्नर जनरल की परिषद द्वारा पारित कानूनों को अधिनियम की संज्ञा दी गयी।

    (४) विधि के संहिताकरण के लिए आयोग के गठन का प्रावधान किया गया।

    (५) भारत में दास-प्रथा को गैर-कानूनी घोषित किया गया। फलस्वरूप 1843 में भारत में दास-प्रथा की समाप्ति की घोषणा हुई।

    (६) इस अधिनियम द्वारा यह स्पष्ट कर दिया गया कि कम्पनी के प्रदेशों में रहने वाले किसी भी भारतीय को केवल धर्म, वंश, रंग या जन्मस्थान इत्यादि के आधार पर कम्पनी के किसी पद से जिसके वह योग्य हो, वंचित नहीं किया जायेगा।

    (७) सपरिषद गवर्नर जनरल को ही सम्पूर्ण भारत के लिए कानून बनाने का अधिकार प्रदान किया गया और मद्रास-बम्बई के परिषदों के कानून बनाने का अधिकार समाप्त कर दिये गये।

इस अधिनियम द्वारा भारत में केन्द्रीकरण का प्रारंभ किया गया, जिसका सबसे प्रबल प्रमाण विधियों को संहिताबद्ध करने के लिए एक आयोग का गठन था। इस आयोग का प्रथम अध्यक्ष लॉर्ड मैकाले को नियुक्त किया गया।
1853 का राजपत्रसंपादित करें

1853 का राजपत्र भारतीय शासन (ब्रिटिश कालीन) के इतिहास में अंतिम चार्टर एक्ट था। यह अधिनियम मुख्यतः भारतीयों की ओर से कम्पनी के शासन की समाप्ति की मांग तथा तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड डलहौजी की रिपोर्ट पर आधारित था। इसकी प्रमुख विशेषताएं निम्न थींः

    (१) ब्रिटिश संसद को किसी भी समय कम्पनी के भारतीय शासन को समाप्त करने का अधिकार प्रदान किया गया।

    (२) कार्यकारिणी परिषद के कानून सदस्य को परिषद का पूर्ण सदस्य का दर्जा प्रदान किया गया।

    (३) बंगाल के लिए पृथक गवर्नर की नियुक्ति की व्यवस्था की गयी।

    (४) गवर्नर जनरल को अपनी परिषद के उपाध्यक्ष की नियुक्ति का अधिकार दिया गया।

    (५) विधायी कार्यों को प्रशासनिक कार्यों से पृथक करने की व्यवस्था की गयी।

    (६) निदेशक मंडल में सदस्यों की संख्या 24 से घटाकर 18 कर दी गयी।

    (७) कम्पनी के कर्मचारियों की नियुक्ति के लिए प्रतियोगी परीक्षा की व्यवस्था की गयी।

    (८) भारतीय विधि आयोग की रिपोर्ट पर विचार करने के लिए इंग्लैंड में विधि आयोग के गठन का प्रावधान किया गया।

क्राउन के शासन काल में संवैधानिक विकास
1858 का अधिनियमसंपादित करें

1853 की चार्टर में कम्पनी को शासन के लिए चूंकि किसी निश्चित अवधि के लिए प्राधिकृत नहीं किया गया था, इसलिए किसी भी समय सत्ता का हस्तांतरण ब्रिटिश क्राउन को संसद के द्वारा हस्तांतरित किया जा सकता था। 1857 के गदर ने शासन की असंतोषजनक नीतियां उजागर कर दी थी, जिससे संसद को कम्पनी को पदच्युत करने का बहाना मिल गया। साम्राज्य की सुरक्षा के लिए ब्रिटिश संसद ने कई अधिनियम पारित किये जो भारतीय प्रशासन का आधार बने। 1858 के अधिनियम के प्रमुख प्रावधान निम्न थेः

    (१) भारत में कम्पनी के शासन को समाप्त कर शासन का उत्तरदायित्व ब्रिटिश संसद को सौंप दिया गया।

    (२) अब भारत का शासन ब्रिटिश साम्राज्ञी की ओर से राज्य सचिव को चलाना था, जिसकी सहायता के लिए 15 सदस्यीय भारत परिषद का गठन किया गया। अब भारत के शासन से संबंधित सभी कानूनों एवं कार्यवाहियों पर भारत सचिव की स्वीकृति अनिवार्य कर दी गयी।

    (३) भारत के गवर्नर जनरल का नाम ‘वायसराय’ (क्राउन का प्रतिनिधि) कर दिया गया तथा उसे भारत सचिव की आज्ञा के अनुसार कार्य करने के लिए बाध्य किया गया।

    (४) भारत मंत्री को वायसराय से गुप्त पत्र व्यवहार तथा ब्रिटिश संसद में प्रतिवर्ष भारतीय बजट पेश करने का अधिकार दिया गया।

    (५) कम्पनी की सेवा को ब्रिटिश शासन के अधीन कर दिया गया।

    (६) इस प्रकार भारत का प्रथम वायसराय लॉर्ड कैनिंग बना।

1 नवम्बर, 1858 को ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया ने भारत के संबंध में एक महत्वपूर्ण नीतिगत घोषणा की। इस घोषणा की महत्वपूर्ण बातें निम्न थींः

    (१) भारतीय प्रजा को साम्राज्य के अन्य भागों में रहने वाली ब्रिटिश प्रजा के समान माना जायेगा।

    (२) भारतीय लोगों के साथ लोक सेवाओं में अपनी शिक्षा, योग्यता तथा विश्वसनीयता के आधार पर स्वतंत्र एवं निष्पक्ष भर्ती में भेदभाव नहीं किया जायेगा।

    (३) भारत के लोगों के भौतिक एवं नैतिक उन्नति के प्रयास किये जायेंगे।

भारतीय परिषद अधिनियम 1861संपादित करें

1861 का भारतीय परिषद अधिनियम भारत के संवैधानिक इतिहास में एक महत्वपूर्ण और युगांतकारी घटना है। यह दो मुख्य कारणों से महत्वपूर्ण है। एक तो यह कि इसने गवर्नर जनरल को अपनी विस्तारित परिषद में भारतीय जनता के प्रतिनिधियों को नामजद करके उन्हें विधायी कार्य से संबद्ध करने का अधिकार दिया। दूसरा यह कि इसने गवर्नर जनरल की परिषद की विधायी शक्तियों का विकेन्द्रीकरण कर दिया अर्थात बम्बई और मद्रास की सरकारों को भी विधायी शक्ति प्रदान की गयी। इस अधिनियम की अन्य महत्वपूर्ण बातें निम्न थींः

    (१) गवर्नर जनरल की विधान परिषद की संख्या में वृद्धि की गयी। अब इस परिषद में कम-से-कम 6 तथा अधिकतम 12 सदस्य हो सकते थे। उनमें कम-से-कम आधे सदस्यों का गैर-सरकारी होना जरूरी था।

    (२) गवर्नर जनरल को विधायी कार्यों हेतु नये प्रांत के निर्माण का तथा नव-निर्मित प्रांत में गवर्नर या लेफ्रिटनेंट गवर्नर को नियुक्त करने का अधिकार दिया गया।

    (३) गवर्नर जनरल को अध्यादेश जारी करने का अधिकार दिया गया। 1865 के अधिनियम के द्वारा गवर्नर जनरल को प्रेसीडेन्सियों तथा प्रांतों की सीमाओं को उद्घोषणा द्वारा नियत करने तथा उनमें परिवर्तन करने का अधिकार दिया गया। इसी तरह 1869 के अधिनियम के द्वारा गवर्नर जनरल को विदेश में रहने वाले भारतीयों के संबंध में कानून बनाने का अधिकार दिया गया। 1873 के अधिनियम के द्वारा ईस्ट इंडिया कम्पनी को किसी भी समय भंग करने का प्रावधान किया गया। इसी के अनुसरण में 1 जनवरी, 1874 को ईस्ट इंडिया कम्पनी को भंग कर दिया गया।

शाही उपाधि अधिनियम, 1876संपादित करें

इस अधिनियम के अंतर्गत निम्न कार्य किये गयेः

    (१) 28 अप्रैल, 1876 को एक घोषणा द्वारा महारानी विक्टोरिया को ‘भारत की साम्राज्ञी’ घोषित किया गया।

    (२) औपचारिक रूप से भारत सरकार का ब्रिटिश सरकार को अन्तरण मान्य किया गया।

भारतीय परिषद अधिनियम 1892संपादित करें

1861 के अंतर्गत गैर-सरकारी सदस्य या तो बड़े जमींदार होते थे या अवकाश प्राप्त अधिकारी या भारत के राज परिवारों के सदस्य। प्रतिनिधित्व की आम आकांक्षा की पुष्टि इससे नहीं हुई। इसी बीच भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा अधिक प्रतिनिधित्व की मांग की जाती रही। यूरोपीय व्यापारियों की ओर से भी भारत सरकार को इंग्लैंड में स्थित इंडिया आफिस से अधिक स्वतंत्रता की मांग की जाती रही। सर जॉर्ज चिजनी की अध्यक्षता में एक कमेटी बनी जिसके सुझावों का समावेश 1892 के अधिनियम में किया गया। इस अधिनियम की प्रमुख बातें निम्न थीः

    (१) इस अधिनियम के द्वारा केन्द्रीय तथा प्रांतीय विधान परिषद् में ‘अतिरिक्त सदस्यों’ की संख्या बढ़ा दी गयी और उनके निर्वाचन का भी विशेष उल्लेख किया गया। यद्यपि इसके द्वारा सीमित चुनाव की ही व्यवस्था हुई, लेकिन भारत के मुख्य सामाजिक वर्गों का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित किया गया।

    (२) परिषद के अधिकारों में भी वृद्धि की गयी। वार्षिक आय या बजट का ब्योरा परिषद में प्रस्तुत करना आवश्यक हो गया। सदस्यों को कार्यपालिका के काम के बारे में प्रश्न पूछने का अधिकार दिया गया।

यद्यपि इस अधिनियम द्वारा विधायिका के सदस्य के सीमित निर्वाचन की शुरूआत हुई, फिर भी इस अधिनियम में अनेक खामियां थी जिनके कारण भारतीय राष्ट्रवादियों ने इस अधिनियम की बार-बार आलोचना की। यह माना गया कि स्थानीय निकायों का चुनाव मंडल बनाना एक प्रकार से इनके द्वारा मनोनीत करना ही है। विधान मंडलों की शक्तियां भी काफी सीमित थीं। सदस्य अनुपूरक प्रश्न नहीं पूछ सकते थे। किसी प्रश्न का उत्तर देने से इंकार किया जा सकता था। इसके अलावा वर्गों का प्रतिनिधित्व भी पक्षपातपूर्ण था।
भारतीय परिषद अधिनियम, 1909संपादित करें

1892 का अधिनियम राष्ट्रवादियों को संतुष्ट नहीं कर सका था, साथ ही राष्ट्रीय आंदोलन पर उग्रवादी नेताओं का प्रभाव बढ़ता जा रहा था। सेक्रेटरी ऑफ स्टेट लॉर्ड मार्ले तथा भारत में वायसराय लॉर्ड मिन्टो दोनों ही सहमत थे कि कुछ सुधारों की आवश्यकता है। सर अरुण्डेल कमेटी की रिपोर्ट के आधार पर फरवरी 1909 ई. में नया अधिनियम पारित किया गया जिसे भारतीय परिषद् अधिनियम 1909 और ‘मार्ले-मिन्टो सुधार’ के नाम से जाना गया। इस अधिनियम के प्रमुख प्रावधान निम्न थेः

    (१) इस अधिनियम के द्वारा केन्द्रीय एवं प्रांतीय विधान परिषदों में निर्वाचित सदस्यों की संख्या में वृद्धि की गयी। प्रांतीय विधान परिषदों में गैर-सरकारी बहुमत स्थापित किया गया।

    (२) सभी निर्वाचित सदस्य अप्रत्यक्ष रूप से चुने जाते थे। स्थानीय निकायों से निर्वाचन परिषद का गठन होता था। ये प्रांतीय विधान परिषदों के सदस्यों का चुनाव करती थी। प्रांतीय विधान परिषद के सदस्य केन्द्रीय व्यवस्थापिका के सदस्यों का चुनाव करते थे।

    (३) पहली बार पृथक निर्वाचन व्यवस्था का प्रारंभ किया गया। मुसलमानों को प्रतिनिधित्व में विशेष रियायत दी गयी। उन्हें केन्द्रीय एवं प्रांतीय विधान परिषदों में जनसंख्या के अनुपात से अधिक प्रतिनिधि भेजने का अधिकार दिया गया।

    (४) गवर्नर जनरल की कार्यकारिणी में एक भारतीय सदस्य को नियुक्त करने की व्यवस्था की गयी। प्रथम भारतीय सदस्य के रूप में सत्येन्द्र सिन्हा की नियुक्ति हुई।

    (५) विधायिका के कार्यक्षेत्र में विस्तार किया गया। सदस्यों को बजट प्रस्ताव करने और जनहित के विषयों पर प्रश्न पूछने का अधिकार दिया गया। जिन विषयों को विधायिका के क्षेत्र से बाहर रखा गया था, वे थे सशस्त्र सेना, विदेश संबंध और देशी रियासतें।

इस अधिनियम की सबसे बड़ी त्रुटि यह थी कि पृथक अथवा साम्प्रदायिक आधार पर निर्वाचन की पद्धति लागू की गयी। इसके अलावा जो चुनाव पद्धति अपनायी गयी, वह इतनी अस्पष्ट थी कि जन प्रतिनिधित्व प्रणाली एक प्रकार की बहुत-सी छननियों में से छानने की प्रक्रिया बन गयी। संसदीय प्रणाली तो दे दी गयी, परंतु उत्तरदायित्व नहीं दिया गया।
भारतीय परिषद अधिनियम, 1919संपादित करें

20 अगस्त, 1917 को तत्कालीन सेक्रेटरी ऑफ स्टेट फॉर इंडिया, मॉटेग्यु ने हाउस ऑफ कॉमंस में एक ऐतिहासिक वक्तव्य दिया, जिसमें ब्रिटेन के इरादे का बयान किया गयाः

    शासन की सभी शाखाओं में भारतीयों को शामिल करना और स्वायत्तशासी संस्थाओं का क्रमिक विकास, जिससे ब्रिटिश भारत के अभिन्न अंग के रूप में उत्तरदायी सरकार की उत्तरोत्तर उपलब्धि हो सके।

इसी घोषणा को कार्यान्वित करने के लिए ‘मोंटफोर्ड रिपोर्ट-1918’ प्रकाशित की गयी, जो 1919 के अधिनियम का आधार बना। इस एक्ट द्वारा तत्कालीन भारतीय संवैधानिक प्रणाली में महत्वपूर्ण परिवर्तन किये गयेः

    (१) केन्द्रीय विधान परिषद का स्थान राज्य परिषद (उच्च सदन) तथा विधान सभा (निम्न सदन) वाले द्विसदनीय विधान मंडल ने ले लिया। हालांकि, सदस्यों को नामजद करने की कुछ शक्ति बनाये रखी गयी, पिफर भी प्रत्येक सदन में निर्वाचित सदस्य का बहुमत होना सुनिश्चित किया गया।

    (२) सदस्यों का चुनाव सीमांकित निर्वाचन क्षेत्रों द्वारा प्रत्यक्ष रूप से किया जाना था। मताधिकार का विस्तार किया गया। निर्वाचक मंडल के लिए अर्हताएं साम्प्रदायिक समूह, निवास और संपत्ति पर आधारित थीं।

    (३) आठ प्रमुख प्रांतों में जिन्हें 'गवर्नर का प्रांत' कहा जाता था, "द्वैध शासन" की एक नयी पद्धति शुरू की गयी। प्रांतीय सूची के विषयों को दो भागों में बांटा गया- सुरक्षित विषय और हस्तांतरित विषय। सुरक्षित सूची के विषय गवर्नर के अधिकार क्षेत्र में थे और वह इन विभागों को अपने कार्यकारिणी की सहायता से देखता था। हस्तांतरित विषय भारतीय मंत्रियों के अधिकार में थे, जिनकी नियुक्ति भारतीय सदस्यों में से होती थी।

    (४) अधिनियम के प्रारंभ के दस वर्ष बाद द्वैध शासन प्रणाली तथा संवैधानिक सुधारों के व्यावहारिक रूप की जांच के लिए और उत्तरदायी सरकार की प्रगति से संबंधित मामलों पर सिफारिश करने के लिए ब्रिटिश संसद द्वारा एक आयोग ने गठन की व्यवस्था की गयी। इसी प्रावधान के अनुसार 1927 में साईमन आयोग का गठन किया गया।

1919 के अधिनियम में अनेक खामियां थीं। इसने जिम्मेदार सरकार की मांग को पूरा नहीं किया। इसके अलावा प्रांतीय विधान मंडल गवर्नर जनरल की स्वीकृति के बगैर अनेक विषयों में विधेयक पर बहस नहीं कर सकते थे। सिद्धान्त रूप में केन्द्रीय विधान मंडल सम्पूर्ण क्षेत्र में कानून बनाने के लिए सर्वोच्च तथा सक्षम बना रहा। केन्द्र तथा प्रांतों के बीच शक्तियों के बंटवारे के बावजूद ब्रिटिश भारत का संविधान एकात्मक राज्य का संविधान ही बना रहा। प्रांतों में द्वैध शासन पूरी तरह विफल रहा। गवर्नर का पूर्ण वर्चस्व कायम रहा। वित्तीय शक्ति के अभाव में मंत्री अपनी नीतियों को प्रभावी रूप से कार्यान्वित नहीं कर सकते थे। इसके अलावा मंत्री विधान मंडल के प्रति सामूहिक रूप से जिम्मेदार नहीं थे। वस्तुतः मंत्रियों को दो मालिकों को खुश रखना पड़ता था- एक तो विधान परिषद को और दूसरा गवर्नर जनरल को।
साइमन कमीशन 1927संपादित करें

1919 के अधिनियम की धारा 84 के अनुसार सर जॉन साइमन की अध्यक्षता में एक आयोग का गठन किया गया। इस आयोग में एक भी भारतीय सदस्य नहीं था अतः भारतीयों द्वारा इसका विरोध किया गया। आयोग की रिपोर्ट जून 1930 में प्रकाशित हुई। साइमन कमीशन द्वारा डोमिनियन दर्जे की मांग को ठुकरा दिये जाने के बाद कांग्रेस ने 1929 के लाहौर अधिवेशन में ‘पूर्ण स्वराज्य’ का प्रस्ताव पारित किया गया।
नेहरू रिपोर्टसंपादित करें

कांग्रेस पार्टी ने सेक्रेटरी ऑफ स्टेट, लॉर्ड वर्कनहेड की इस चुनौती को स्वीकार किया कि एक ऐसे संविधान की रचना की जाये, जो भारत के हर दल को स्वीकार हो। इसके लिए 28 फरवरी, 1928 ई. को दिल्ली में एक सर्वदलीय सम्मेलन बुलाया गया। संविधान का प्रारूप बनाने के लिए पंडित मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में नौ सदस्यों की एक समिति बनायी गयी। इस समिति द्वारा प्रस्तुत प्रारूप को ही नेहरू रिपोर्ट के नाम से जाना जाता है। नेहरू रिपोर्ट लखनऊ के सर्वदलीय सम्मेलन में स्वीकार की गयी, लेकिन दिसम्बर 1928 ई.में कलकत्ता के सर्वदलीय सम्मेलन में इस पर गंभीर आपत्ति उठायी गयी। नेहरू रिपार्ट के ‘साम्प्रदायिक समझौता’ में सभी समुदायों के संयुक्त निर्वाचक समूह का प्रस्ताव था। इस प्रस्ताव पर सबसे बड़ी आपत्ति मुहम्मद अली जिन्ना ने की।
गोलमेज सम्मेलन, 1930-1932संपादित करें

साइमन आयोग की रिपोर्ट के प्रकाशित होने के पहले ही लॉर्ड इर्विन ने घोषणा की थी कि रिपोर्ट को गोलमेज सम्मेलन में विचार के लिए रखा जायेगा। पहला सम्मेलन 12 नवम्बर, 1930 को हुआ। यह सम्मेलन किसी निश्चित सहमति पर नहीं पहुंच सका। पहले सम्मेलन में कांग्रेस ने भाग नहीं लिया था। फरवरी 1931 के ‘गांधी-इर्विन समझौते’ के फलस्वरूप दूसरे गोलमेज सम्मेलन में कांग्रेस की तरफ से गांधीजी ने सम्मेलन में भाग लिया। श्रीमती सरोजिनी नायडू और पंडित मदन मोहन मालवीय ने ब्रिटिश सरकार के मनोनीत सदस्य के रूप में भाग लिया। दूसरे समुदायों के प्रतिनिधियों को भी आमंत्रित किया गया। इस सम्मेलन के बाद ही ‘साम्प्रदायिक अधिनिर्णय’ (communal award) और पूना समझौता का आविर्भाव हुआ, जिनके द्वारा धार्मिक समूहों और हिन्दुओं के विभिन्न वर्ण समूहों को विशेष प्रतिनिधित्व दिया गया।

कांग्रेस और अन्य राष्ट्रीय समूहों ने इन प्रावधानों का जमकर विरोध किया। तीसरा और अंतिम गोलमेज सम्मेलन नवम्बर 1932 ई. में हुआ। एक श्वेतपत्र जारी किया गया, जिस पर ब्रिटेन की संसद की संयुक्त प्रवर समिति ने विचार किया। इसके सुझावों के आधार पर भारत सरकार अधिनियम 1935 बनाया गया।
भारत सरकार अधिनियम 1935संपादित करें

1935 के भारत सरकार अधिनियम में 321 अनुच्छेद तथा 10 अनुसूचियां थीं। इस अधिनियम के प्रमुख प्रावधान निम्न थेः

    (१) इस अधिनियम द्वारा अखिल भारतीय संघ का प्रावधान किया गया, जिसमें ब्रिटिश प्रांतों का शामिल होना अनिवार्य था, किन्तु देशी रियासतों का शामिल होना नरेशों की इच्छा पर निर्भर था।

    (२) संघ तथा केन्द्र के बीच शक्तियों का विभाजन किया गया। विभिन्न विषयों की तीन सूचियां बनायी गयी- संघीय सूची, प्रांतीय सूची तथा समवर्ती सूची।

    (३) 1919 के अधिनियम द्वारा जो द्वैध शासन प्रांतों में लागू किया गया था, उसे केन्द्र में लागू किया गया। केन्द्रीय सरकार के विषयों को दो भागों में विभाजित किया गया- संरक्षित विषय और हस्तांतरित विषय। संरक्षित विषय गवर्नर जनरल के अधिकार क्षेत्र में था, जबकि हस्तांतरित विषयों का शासन मंत्रिपरिषद को सौंपा गया।

    (४) केन्द्र में द्विसदनात्मक विधायिका की स्थापना की गयी- राज्य परिषद (उच्च सदन) तथा केन्द्रीय विधान सभा (निम्न सदन)।

    (५) प्रांतों में द्वैध शासन को समाप्त कर प्रांतीय स्वायत्तता के सिद्धान्त को स्वीकार किया गया।

    (६) प्रांतीय विधायिका को प्रांतीय सूची तथा समवर्ती सूची पर कानून बनाने का अधिकार दिया गया।

    (७) प्रांतीय विधान मंडल को अनेक शक्तियां दी गयी। मंत्रिपरिषद को विधानमंडल के प्रति जिम्मेदार बना दिया गया और वह एक अविश्वास प्रस्ताव पारित कर उसे पदच्युत कर सकता था। विधान मंडल प्रश्नों तथा अनुपूरक प्रश्नों के माध्यम से प्रशासन पर कुछ नियंत्रण रख सकता था।

    (८) इस अधिनियम के अधीन बर्मा को भारत से अलग कर दिया गया और उड़ीसा तथा सिन्ध नाम से दो नये प्रांत बना दिये गये।

    (९) इस अधिनियम द्वारा एक संघीय बैंक और एक संघीय न्यायालय की स्थापना का भी प्रावधान किया गया।

भारतीय स्वतंत्रता अधिनिमय 1947संपादित करें
मुख्य लेख : भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम १९४७

माउन्टबेटेन योजना के आधार पर ब्रिटिश संसद द्वारा पारित भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947 के प्रमुख प्रावधान निम्न थेः

    (१) भारत तथा पाकिस्तान नामक दो डोमिनियनों की स्थापना के लिए 15 अगस्त, 1947 की तारीख निश्चित की गयी।

    (२) इसमें भारत का क्षेत्रीय विभाजन भारत तथा पाकिस्तान के रूप में करने तथा बंगाल एवं पंजाब में दो-दो प्रांत बनाने का प्रस्ताव किया गया। पाकिस्तान को मिलने वाले क्षेत्रों को छोड़कर ब्रिटिश भारत में सम्मिलित सभी प्रांत भारत में सम्मिलित माने गये।

    (३) पूर्वी बंगाल, पश्चिमी बंगाल और असम के सिलहट जिले को पाकिस्तान में सम्मिलित किया जाना था।

    (४) भारत में महामहिम की सरकार (His Majesty’s Government) का उत्तरदायित्व तथा भारतीय रियासतों पर महामहिम का अधिराजत्व 15 अगस्त, 1947 को समाप्त हो जायेगा।

    (५) भारतीय रियासतें इन दोनों में से किसी में शामिल हो सकती थीं।

    (६) प्रत्येक डोमिनियन के लिए पृथक गवर्नर जरनल होगा जिसे महामहिम द्वारा नियुक्त किया जायेगा। गवर्नर जनरल डोमिनियन की सरकार के प्रयोजनों के लिए महामहिम का प्रतिनिधित्व करेगा।

    (७) प्रत्येक डोमिनियन के लिए पृथक विधानमंडल होगा, जिसे विधियां बनाने का पूरा प्राधिकार होगा तथा ब्रिटिश संसद उसमें कोई हस्तक्षेप नहीं कर सकेगी।

    (८) डोमिनियम की सरकार के लिए अस्थायी उपबंध के द्वारा दोनों संविधान सभाओं की संसद का दर्जा तथा डोमिनियन विधानमंडल की पूर्ण शक्तियां प्रदान की गयी।

    (९) इसमें गवर्नर जनरल को एक्ट के प्रभावी प्रवर्तन के लिए ऐसी व्यवस्था करने हेतु, जो उसे आवश्यक तथा समीचीन प्रतीत हो, अस्थायी आदेश जारी करने का प्राधिकार दिया गया।

    (१०) इसमें सेक्रेटरी ऑफ द स्टेट की सेवाओं तथा भारतीय सशस्त्र बल, ब्रिटिश स्थल सेना, नौसेना और वायु सेना पर महामहिम की सरकार का अधिकार क्षेत्र अथवा प्राधिकार जारी रहने की शर्तें निर्दिष्ट की गयी थी।

इस प्रकार भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947 के अनुसार 14-15 अगस्त, 1947 को भारत तथा पाकिस्तान नामक दो स्वतंत्र राष्ट्रों का गठन कर दिया गया। इस प्रकार भारतीय संविधान की बहुत-सी संस्थाओं का विकास संवैधानिक विकास के लम्बे समय में हुआ, जिसकी चर्चा ऊपर की गयी है। इसका सबसे महत्वपूर्ण उदाहरण है संघीय व्यवस्था। यह कांग्रेस और मुस्लिम लीग द्वारा 1916 ई. के लखनऊ समझौते में स्वीकार की गयी थी। साइमन कमीशन ने भी संघीय व्यवस्था पर बल दिया और 1935 ई. के अधिनिमय ने संघीय व्यवस्था की स्थापना की, जिसमें प्रांतों के अधिकार ब्रिटेन के क्राउन द्वारा प्राप्त हुए थे। जब भारत स्वतंत्र हुआ तब तक राष्ट्रीय आन्दोलन के नेता संघीय व्यवस्था के लिए वचनबद्ध हो चुके थे। संसदीय व्यवस्था, जो कार्यपिलका और विधायिका के संबंधों को परिभाषित करती है, भारत में अपरिचित नहीं थी। इस तरह भारतीय संविधान, संविधान निर्माताओं की बुद्धिमानी और सूक्ष्म दृष्टि और कालक्रम में विकसित संस्थाओं और कार्यविधियों का एक अपूर्व सम्मिश्रण है।

Monday, 6 November 2017

अब्राहम लिंकनचे हेडमास्तरांस पत्र

अब्राहम लिंकनचे हेडमास्तरांस पत्र


अब्राहम लिंकनचे हेडमास्तरांस पत्र

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प्रिय  गुरुजी,
                   
         सगळीच माणसे न्यायप्रिय नसतात,
            नसतात सगळीच सत्यनिष्ठ,
            हे शिकेलच माझा मुलगा कधी ना कधी.
            मात्र त्याला हे देखील शिकवा,
            जगात प्रत्येक बदमाशागणिक    
            असतो एक साधूचरित ,   पुरुषोत्तमही
            स्वार्थी राजकारणी असतात जगात,
            तसे असतात अवघं आयुष्य समर्पित करणारे  नेतेही.
            असतात टपलेले वैरी ,  तसे जपणारे  मित्रही,
            मला माहित आहे !
            सगळ्या गोष्टी झटपट नाही शिकवता येत.........
            तरीही जमलं तर त्यांच्या मनावर ठसवा,
            घाम गाळून कमावलेला एकच छदाम,
            आयत्या  मिळालेल्या  घबाडापेक्षा मौल्यवान आहे.
            हार कशी स्वीकारावी ते त्याला शिकवा
            आणि शिकवा विजयाचा आनंद संयमाने घ्यायला ,
            तुमच्यात शक्ती असती तर .........
            त्याला द्वेष मत्सरापासून दूर रहायला शिकवा
            आणि शिकवा त्याला आपला हर्ष संयमाने व्यक्त करायला.
            गुंडांना भीत जावू नको म्हणावं,
            त्यांना नमविणे सर्वात सोपं असतं.
            जमेल तेवढं दाखवित चला त्याला ,
            ग्रंथ भांडाराच अदभूत वैभव.
            मात्र त्याबरोबरच ,
            मिळू दे त्याच्या मनाला निवांतपणा,
            सृष्टीचं शाश्वत सौंदर्य  अनुभवायला ,
            पाहू दे त्याला , पक्षांची अस्मान भरारी ............
            सोनेरी उन्हात भिरभिरणारे भ्रमर ..........
            आणि हिरव्यागार डोंगर उतारावर डुलणारी चिमुकली फुलं......
            शाळेत त्याला हा धडा मिळू दे ,
            फसवून  मिळालेल्या यशापेक्षा ,
            सरळ आलेल अपयश श्रेयस्कर आहे .
            आपल्या कल्पना, आपले विचार ,
            यांच्यावर दृढ विश्वास ठेवायला हवा त्याने ,
            बेहत्तर आहे सर्वांनी त्याला चूक ठरवलं तरी ,
            त्याला सांगा ................
            भल्याशी भलायीन वागावं,
            आणि टग्यांना अद्दल घडवावी .
            माझ्या मुलाला हे पटवता आल तर पहा .........
            जिकडे सरशी तिकडे धावत सुटणाऱ्या भाऊगर्दीत,
            सामील न होण्याची ताकद त्यान कमवायला हवी ,
            पुढे हेही सांगा त्याला ,
            ऐकावं जनाच अगदी सर्वांच ...........
            पण गाळून घ्यावं ते सत्याच्या चाळणीतून ,
            आणि फोलपट टाकून निव्वळ सत्व तेवढं स्वीकाराव.
            जमलं तर त्याच्या मनावर बिंबवा,
            हसत रहावं उरातल दुख्ख दाबून ,
            आणि म्हणावं त्याला
            आसवांची   लाज वाटू देऊ नको.          
            त्याला शिकवा .........
            तुच्छतावाद्याना   तुच्छ   मानायला ,
            अन चाटुगिरीपासून सावध रहायला .
            त्याला हे पुरेपूर समजवा की ,
            करावी कमाल कमाई त्याने, ताकद आणि अक्कल विकून,
           पण कधीही विक्रय करू नये, हृदयाचा आणि आत्म्याचा.
           धिक्कार करणाऱ्यांच्या झुंडी आल्या तर,
           कानाडोळा करायला शिकवा त्याला.
           आणि ठसवा त्याच्या मनावर,
           जे सत्य आणि न्याय वाटते,
           त्याच्यासाठी पाय रोवून लढत रहा.
           त्याला ममतेन वागवा,
           पण, लाडावून ठेवू नका.
           आगीत तावून सुलाखून निघाल्याशिवाय
           लोखंडाच कणखर पोलाद होत नसतं,
           त्याच्या अंगी बाणवा अधीर व्हायचं धैर्य,
           अन धरला पाहिजे धीर त्याने,
           जर गाजवायच असेल शौर्य .
           आणखीही एक सांगत रहा त्याला ..........
           आपला दृढ विश्वास पाहिजे आपल्यावर,
           तरच जडेल उदात्त श्रद्धा मानवजातीवर,
           माफ करा गुरुजी,
           मी फार बोललो आहे  _
           खूप काही मागतो आहे.........
           पण पहा........
           जमेल तेवढ अवश्य कराच,
           माझा मुलगा, भलताच गोड छोकरा आहे हो तो.
                                                   
                                                                      अब्राहम लिंकन  

Sunday, 5 November 2017

विद्यार्थी दिवस 7 नोव्हेंबर -सम्पूर्ण माहिती

विद्यार्थी दिवस 7 नोव्हेंबर -सम्पूर्ण माहिती

विद्यार्थी दिवस 7 नोव्हेंबर -सम्पूर्ण माहिती

भारतरत्न डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर यांच्या शाळाप्रवेशाचा ७ नोव्हेंबर हा दिवस राज्यातील शाळा व महाविद्यालयांमध्ये ‘विद्यार्थी दिवस’ म्हणून साजरा केला जाणार आहे. शालेय शिक्षण व क्रीडा विभागाने या संदर्भातील परिपत्रक काढले आहे.

‘विद्यार्थी दिवस’ उपक्रमाअंतर्गत सर्व शाळांमध्ये बाबासाहेबांच्या जीवनावर आधारित विविध पैलूंवर निबंध, वक्तृत्व स्पर्धा आणि काव्यवाचन आदी उपक्रम आयो​जित करण्याच्या सूचना देण्यात आल्या आहेत. डॉ. आंबेडकर यांचा शाळाप्रवेश दिवस एका अर्थाने शैक्षणिक क्रांतीची आणि युगांतराची चाहूल म्हटली पाहिजे. त्यांच्या शाळाप्रवेशाने ते स्वतः प्रज्ञावंत झालेच आणि कोट्यवधी दलितांचे-वंचितांचे उद्धारकर्तेही झाले. त्यांच्या संविधानामुळे भारतीय समाजात स्वातंत्र्य, समता, बंधुता आणि न्याय ही मानवी मूल्ये रूजू शकली. त्यामुळेच त्यांच्या शाळा प्रवेशाचा दिवस ही महत्त्वाची घटना आहे, असे परिपत्रकात म्हटले आहे.

७ नोव्हेंबर १९०० या दिवशी बाबासाहेबांनी प्रतापसिंग हायस्कूल, राजवाडा चौक, सातारा येथील शाळेत प्रवेश घेतला. त्यावेळी त्यांचे नाव भिवा होते. या शाळेच्या रजिस्टरला ‘१९१४’ या क्रमांकासमोर आजही त्यांची स्वाक्षरी असून, हा ऐतिहासिक दस्तावेज शाळा प्रशासनाने जपून ठेवला आहे.

◆●◆●◆●◆●◆●◆●◆●
शासन निर्णयानुसार सर्व शाळेत है दिवस विद्यार्थिदिन म्हणून साजरा करायचा आहे तरी खालील माहिती आपणास नक्कीच उपयोगी पडेल● 

➤ बाबासाहेब भाषण - हिन्दी 

➤ बाबासाहेब भाषण - मराठी

➤ बाबासाहेब भाषण - इंग्रजी

➤ बाबासाहेब अंबेडकर - कविता

➤ बाबासाहेब अंबेडकर - सुविचार
➤ बाबासाहेब अंबेडकर - ग्रंथ सूची


➤ बाबासाहेब अंबेडकर - जीवनक्रम


➤ बाबासाहेब अंबेडकर - पत्रलेखने


➤ बाबासाहेब अंबेडकर - थोडक्यात माहिती


➤ बाबासाहेब अंबेडकर - विचार मालिका 1


➤ बाबासाहेब अंबेडकर - विचार मालिका 2

FROM http://mcgmteacher2016.blogspot.in/2017/11/

Saturday, 27 May 2017

शिवविचार 12

दिनांक:- 27/05/2017

वार :- शनीवार


*शिवविचार*


एकदा एका तळ्यातला बेडकांना वाटले, की आपल्याला एक राजा हवा. म्हणून त्यांनी देवाकडे तशी मागणी केली. तेव्हा देवाला हसूच आले व त्याने 'हा घ्या राजा !' म्हणून एक लाकडी ओंडका तळ्यात टाकला. तो पाण्यावर पडताच पाणी उसळले. ते पाहून सगळे बेडूक घाबरले आणि बाजूला जाऊन बसले. थोड्या वेळाने पाणी शांत झाल्यावर तो ओंडका काही हालचाल करीत नाही असे पाहून त्याच्यावर चढले व उड्या मारू लागले. मग त्यांना वाटले की या राजापेक्षा दुसरा चांगला राजा हवा. तेव्हा त्यांनी देवाची प्रार्थना करून दुसरा चांगला राजा पाठवण्याची विनंती केली. देवाने एक बगळा पाठविला. त्याने बेडकांना मारून खायला सुरुवात केली. म्हणून बेडकांनी देवाकडे अजून चांगल्या राजाची मागणी केली. ते ऐकून देव म्हणाला, 'मी तुम्हांला पहिला राजा पाठवला होता तो तुम्हांला आवडला नाही. आता तुमचं कर्म तुम्हीच भोगा.'

*शिवविचार*
- देवाने ज्या स्थितीत ठेवले आहे त्यात समाधानी असावे.

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शिवविचार 11

दिनांक:- 26/05/2017
वार :- शुक्रवार


*शिवविचार*

एक म्हातारे घुबड झाडाच्या ढोलीत झोपले असता एका टोळाने झाडाखाली गाणे म्हणायला सुरुवात केली. त्याने गाणे म्हणू नये म्हणून घुबडाने त्याला विनंती केली, बाबा रे, तू येथून जा, मला विनाकारण त्रास देऊ नकोस. तुझ्या किरकीरीने माझी झोप मोडते.' यावर तो टोळ त्या घुबडाचा धिक्कार करून त्याला शिव्या देऊ लागला. तो म्हणाला, 'तू लबाड, चोर आहेस, रात्रीचा बाहेर जाऊन चोरी करून पोट भरतोस नि दिवसा झाडाच्या ढोलीत लपून बसतोस.' त्यावर घुबड म्हणाले, 'अरे तू आता आपलं तोंड सांभाळ, नाहीतर मग पस्तावशील.' तरीही टोळ ऐकून घेईना. घुबडाची निंदा करून तो पुन्हा गाऊ लागला, मग घुबडाने त्याची खोटी स्तुती करायला सुरुवात केली, 'बाबा रे, क्षमा कर. तुझं गायन अगदी गोड आहे. माझ्या इतका वेळ ते लक्षात आलं नाही. तुझ्यासारखा गाणारा तूच. तुझ्या गाण्यापुढे कोकीळाही लाजेल. तुझा स्वर सारंगीपेक्षा चांगला आहे. बरी आठवण झाली. माझ्याकडे एक अमृताची कुपी आहे. त्यातले थोडेसं मी तुला देतो. फार वेळ गात राहिल्याने तुझा गळा अगदी सुकून गेला असेल नाही का ?' टोळाला खरोखरच तहान लागली होती, तो घुबडाजवळचे अमृत घेण्यासाठी त्याच्याजवळ गेला. लगेच घुबडाने त्याला उचलून आपल्या तोंडात टाकले.

*शिवविचार*
- आपल्याला जे आवडते ते सर्वांनाच आवडेल असे नाही, हे लक्षात घेऊन दुसर्याच्या आवडीनिवडीचा जे विचार करीत नाहीत ते शेवटी आपला नाश करून घेतात.

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शिवविचार 10

दिनांक:- 25/05/2017
वार :- गुरूवार


*शिवविचार*

एका खुराड्यात काही कबुतरे होती. त्यांना मारून खावे या उद्देशाने एक घार त्या खुराड्याभोवती फार दिवस घिरट्या घालून कंटाळली, पण एकही कबुतर तिच्या हाती लागले नाही. मग तिने एक युक्ती केली. ती मोठ्या संभावितपणे कबुतरांजवळ गेली व त्यांना म्हणाली, 'अहो, माझ्यासारख्या बळकट व शूर पक्ष्याला जर तुम्ही आपला राजा कराल तर ससाणे नि तुमचे शत्रू यांच्यापासून मी तुमचे रक्षण करीन.' ससाण्याकडून होणार्या त्रासाला कबुतरे इतकी कंटाळली होती की त्यांनी घारीचे म्हणणे लगेच मान्य केले व तिला आपल्या खुराड्यात राहायला जागा दिली. पण दररोज ही घार खुराड्यातल्या एका कबुतराला मारून खाते, असे त्यांच्या लवकरच लक्षात आले व विचार न करता ह्या दुष्ट पक्ष्याला घरात जागा दिल्याबद्दल त्यांना फार पश्चात्ताप झाला.

*शिवविचार*

- एका शत्रूपासून रक्षण व्हावे म्हणून दुसर्या शत्रूचे साहाय्य घेणे मूर्खपणाचे होय

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